Sunday, May 8, 2011

लिखता हूँ .... खुदा पे .

वो मंदिर की घंटी की गूँज सुनते सुनते ,,

उस बहरे हो चुके ओमकार पे लिखता हूँ

जो दुनिया में रह कर कभी भी न पाया ,,

उस से जन्नत में मिलने के ख्याल पे लिखता हूँ .

सजदे नमाज़ों के जो कभी समझ न पाया ,,

कुरान में चुप बैठे पर्वदिगार पे लिखता हूँ .

जो अपनी ही रचना से न -वाकिफ हो गुज़रा ,,

उस बे -परवाह हो चुके फनकार पेय लिखता हूँ .

वक़्त के हाथों जो बढता न घटता ,,

इक उन्सुल्झी पहेली जैसे निरंकार पे लिखता हूँ .

जहाँ झोली फेल्लाये तू बैठा रहता ' मुरीद ',,

उस पत्थर से रजा के दरबार पे लिखता हूँ ...............[गुर्ब्रिंदर ]

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