वो मंदिर की घंटी की गूँज सुनते सुनते ,,
उस बहरे हो चुके ओमकार पे लिखता हूँ
जो दुनिया में रह कर कभी भी न पाया ,,
उस से जन्नत में मिलने के ख्याल पे लिखता हूँ .
सजदे नमाज़ों के जो कभी समझ न पाया ,,
कुरान में चुप बैठे पर्वदिगार पे लिखता हूँ .
जो अपनी ही रचना से न -वाकिफ हो गुज़रा ,,
उस बे -परवाह हो चुके फनकार पेय लिखता हूँ .
वक़्त के हाथों जो बढता न घटता ,,
इक उन्सुल्झी पहेली जैसे निरंकार पे लिखता हूँ .
जहाँ झोली फेल्लाये तू बैठा रहता ' मुरीद ',,
उस पत्थर से रजा के दरबार पे लिखता हूँ ...............[गुर्ब्रिंदर ]
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