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जहाँ मज़हब के नाम पे दुकाने हैं चलती ,,
मैं क़त्लो -गारत के कारोबार पे लिखता हूँ .
बगल मैं छुर्री जो छुप्पा के है रखता ,,
ऐसे हर ढोंगी शैतान पे लिखता हूँ .
जहाँ साधू और मोलवी सियासत हैं करते ,,
इक बेबस अवाम के हशारात पे लिखता हूँ .
जहाँ खून है सस्ता और पानी है महंगा ,,
गली गली में लगते उस बाज़ार पे लिखता हूँ .
जो मूँद कर आँखें हैं सब कुछ देखते ,,
मैं ऐसे लाचार अफ्सरात पे लिखता हूँ .
'मुरीद ' वो सच जो दुनिया यह सुन नही सकती ,,
किसी खंडहर की पिछली दीवार पे लिखता हूँ ...(गुर्ब्रिंदर )
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