Sunday, May 8, 2011

लिखता हूँ ... महबूब पे

मुकामिल जो होगी मेरे सपनो की

मानिंद ,

अनसुनी सी उस फ़रियाद पे लिखता

हूँ .

ये लोगों के जमघट में मिलना

तुझी से ,

इस बरपे हुए इतिफाक पे लिखता

हूँ .

इक अंधे को वो जो तू जलवे दिखा गई ,

मैं अनहोनी सी उस करामात पे

लिखता हूँ .

सांस सांस के साथ जो थी दिल में

उत्तारी ,

वो अनपढ़ी

हुई इक नमाज़ पे लिखता

हूँ .

जो प्यासा और कर गई वो थोड़ी

सी

बारिश ,

इस सेहरा पे बरसी बरसात पे लिखता

हूँ ....(गुर्ब्रिंदर )

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